25 February 2011

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          ‘If the ground fall uniformly towards the main drain over the whole eld, the small drains should be proceeded with immediately aer the main drain is nished; but should any hollow ground occur in the eld too deep for its waters to nd their way direct to the main drain, then a sub-main drain should be made along the lowest part of the hollow, to receive all the drainage of the ground around it, in order to transmit it to the main drain. The size of the sub-main drains is determined by the extent of drainage they have to eect, and should they have as much to do as the main, they should have the same capacity, but if not, they should have less.’
   Henry Stephens (17961864), The Book of the Farm, vol. I, Edinburgh & London, W. Blackwood & Sons, 1844, p. 564
                                     Stephens was a friend of John Keats, whose Endymion begins with a line composed by Stephens


          « Les grandes explorations commencent toujours sur un défi. Souvenez-vous du départ de l’ingénieur André pour le pôle nord. Nous non plus nous n’avons pu résister. L’homme-jardin nous a laissé faire sans rien dire. Nous avons abordé l’occiput vers la fin de la journée, un peu craintifs d’entendre sous nos pas le sol creux résonner d’étranges bruits caverneux. La région est chaude et parcourue par un vent très doux. »
            Georges Thinès, L’Homme-jardin, dans Le Quatuor silencieux, Lausanne, Éditions l’Age d’Homme, 1987, p. 51


          «Col C. III, la descrizione paesistica acquista un tono visionario estremamente composito, dalle limpide scene ariostesche ed aeree, come si è già visto, alla città di Topaia formicolante dei suoi abitatori quasi una nuova Lilliput, con improvviso senso fisico del buio, dell’epoca morta, del suolo cavo da trapassare in pellegrinaggio ad antiche vestigia che il «tremolar di pallide lucerne» vanifica ancor più in una deformante visione spettrale.»
Attilio Brilli, Satira e mito nei Paralipomeni leopardiani, Urbino, Argalìa Editore, 1968, p. 113




Aldus Manutius fleuron


Poems from the Hollow Ground

A selection


میری نماز

मौला कब होगी इधर इनायत तेरी नज़र की
मौला कब होगी शाम इस बे-रहम सहर की

पड़ा है हर आँख पे परदा- ए- वहीश़त
हर जबीं पे यक शिकन है फिक्र की

हवस रवां है रग रग में साथ लहू के
जुबां पे बात नहीं किसी की सब्र की

यक दिल नहीं, नहीं सुर्ख जिसमें घावे- इश्क़
यक मुहब्बत नहीं जो नहीं उलझन में हिज्र की

घुली है इस क़दर नफ़रत आबो-हवा में
के हर ज़मीं यहाँ शिकार है जब्र की.


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                                                                        January 2014                                                                              








* * *

फिर से बंधेंगी आस्तीनों पे, मुँह पे काली पट्टीयाँ,
लिखे जायेंगे अख़बारों में बड़े बड़े लेख,
फिर से निकलेंगी सड़कों पे बड़ी बड़ी रैलीयाँ,
हर ओर दौड़ेगी एक आक्रोश, एक ग़म की लहर,
नेता, अभिनेता करेंगे अपना दर्दे-दिल बयाँ,
कितनी आँखें कितनी नम होंगी कहना मुश्किल है,
सुख जायेंगे मगर इन आँखों के अश्क़ बहुत जल्दी,
एक और बार होगा गली, चौराहों पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म,
ख़्यालात हों न हों बुलंद, आवाजें फिर से बुलंद होंगी,
नहीं उठेगा तो एक वो ठोस क़दम,
जो उठाना है हमें दरिंदगी-ओ वहीशत ख़िलाफ़ . . .


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                                                                                          23 August 2013                                                                              








Χρόνος
Για τον Μίκη Θεοδωράκη, την αδερφή ψυχή

कहाँ से आता है जाने कहाँ को जाता है,
हर दिन चहरे पे य़क निशां छोड जाता है,

कहाँ से गिरते हैं शबनमें-लम्हा रोजो श़ब,
अब्र बरसाते हैं या कोई रिंद गिरा जाता है,

कौंन देता है तनहाई को मेरी महफ़िल का पता,
कौंन सिने में राहत के ख़ंजरे-फिक्र उतार जाता है,

सिहर उठते हैं जरा से दाब से क़ल्बो-जां,
वकत भी कैसे कैसे न दांव आज़माता है,

कौंन उलझाता है दामने-हयात दुख के काँटों मैं,
कौंन फ़िर सरे-ख़ारे-ग़म क़लम कर जाता है.


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                                                                               Μάιος 2013                                                                              








खूबसूरत शब

रात ने खोल दिऐ हैं घने गेसू अपने
सबा बह रही है किसी झरने की मानिंद
अब्र धुंआ होकर जमीं पर आ लेटे हैं

झोंके लिपटे हुऐ हैं पेड़ों की शाखों से
और उठा रहे हैं सोऐ हुऐ गुलों को
ये कहकर के समा अपने शबाब पर है

तारे झिलमिलाने लगे हैं किसी शम्मा के जैसे
सन्नाटों ने छेड़ दिया अपने शादयाना का फ़न
चाँदनी टपकने लगी है महताब की जबीं से

इस मद्धम नूर-ए महताब में दूर से
हर आता हुआ शख्स तुमसा नज़र आता है


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                                       February 2011









تنہائی

मैं तो खुद मुसाफिर हूँ किसी की रहनुमाई कैसे करूँ
खुद ग़म से परेशां हूँ किसी की होंसला अफ़जाई कैसे करूँ

हर शख्स खुदा है यहाँ किसी को खौफे- खुदा नहीं
ऐसे लोगों में बयां फिर कोई फ़साना-ए खुदाई कैसे करूँ

दुखाना अच्छा नहीं किसी दिल को दिल अपना कहता है
चार दिन को आया हूँ तो ये बुराई कैसे करूँ

ईक ईक चहरे ने ओढ़ रखे हैं यहाँ कई कई नक़ाब
चश्मे- नर्गिसे- मस्ताना हो फिर चाहें मैं आशनाई कैसे करूँ

ईक नई ज़िन्दगी तलाश ली मैंने अंधेरों में बाद तेरे
मगर ढंग नहीं आया के बर्दाश्त शब-ए तन्हाई कैसे करूँ




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                                                          February 2011










बे-दिलों का शहर

यारो कैसा अजब ये बे-दिलों का शहर है
के लाशें भी ठोकरें खा रहीं हैं यहाँ

वफ़ा न मुरब्बत यहाँ, बन्दगी है न रहम है
फ़िक्र सबको फ़क़त अपनी ही सता रही हैं यहाँ

ज़िन्दगी बन गई है इक रस्म जिंदा रहना
रंजिशें बड़ीं बे-हिसाब निभाई जा रही हैं यहाँ

बुत बैठे हैं बुतकदे में दौलत के ढेर पर
साँसें मगर फाँकों से तिलमिला रही हैं यहाँ

इश्क जिस्मानी है यहाँ, मोहब्बत गुनाह का नाम है
दीवारे लहू
से सनी हुईं ये जाता रही हैं यहाँ


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                                                January 2011
__________
*The above poem was written under the impulse generated by the news story originating in the village of Dudhmania in the Indian state of Madhya Pradesh, in the first part of January 2011, which recounted the peregrinations, in search of a burial site, of a father laden with the dead body of his 16-year-old daughter named Sohaga rolled up in a carpet and slung over the rear rack of a bicycle.










ज़िन्दगी

क्यूँ भटकते हो यूँ ज़िन्दगी की तलाश में
भागकर यूँ ग़मों से कभी ज़िन्दगी न मिलेगी

खिलेंगे चाहते- गुल भी बाद-ए हिज्रे- खिज़ा
दौलते- इश्क मगर वस्ले फ़िज़ा में न मिलेगी

संभल लीजे चाहें कितना ही बिगड़ जाईए रफीक
तुम्हारी खू हमारे ढंग से कभी न मिलेगी

कैफ क्या है जबीं घिसने का बुतखाने में गुसाईं
तुझे क़ज़ा न आएगी या हमें जन्नत न मिलेगी

माईले- खुदा कुछ नेकी भी कीजे नमाज़ के साथ
खाली नमाज़ पढ़कर तो तस्वीरे- खुदा भी न मिलेगी




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                                              September 2010









चन्द अल्फाज़

अब नहीं अब नहीं मिलेंगे, अब और किसी से
हाले- दिल दिल में रखेंगे, नहीं कहेंगे किसी से

कैदे- रंजो- ग़म को लौटा हूँ इक उम्र देकर
गिला मुक़द्दर से कोई न शिकवा है ज़िन्दगी से

सागरे- मीना से तो शरारे और भड़क उठते हैं
कभी बुझते हैं क्या शोला-ए दिल मयकशी से

झुकाकर जबीं को सज़दे में सलाम मत कीजे
दिल और भी खराब होता है ऐसी बन्दगी से

मौत वक़्त की गर आऐ तो पीछे न हटूं
मगर गंवारा नहीं ऐ ज़िन्दगी मुझको मरना खुदकुशी से




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                                                      February 2011








محروم

मयकदा नूर-ए चराग से आज महरूम क्यूँ है
पयमाना सागर-ए मीना से आज महरूम क्यूँ है

क्यूँ बंद हैं बता साक़ी दरो- दरीचा-ए मयकदा
लिबास तेरा बू-ए शराब से आज महरूम क्यूँ है

माथे पर शिकन तेरे यूं पहले तो नहीं देखी
महफ़िल तेरी ग़ज़ल-ए मीर से आज महरूम क्यूँ है

ज़िन्दगी जिस्मो- जां लहू अश्क़ो- दिल सब वही है
'सोरहवी' मगर इश्क वफ़ा से आज महरूम क्यूँ है

कमीं कोई न रह गई देने में जहां को
फिर भी खुदा मुरीदों से आज महरूम क्यूँ है




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                                          September 2010









रहे फ़िक्र-ए शब

रहे फ़िक्र-ए शब न दिन की खबर मुझको
रहने दे हुस्न न बक्श कद्र ईतनी जबर मुझको

भरता है दिल में ऐब दिखाकर शबाब क्यूँ ज़ालिम
रखता है रंजिश तो पिलादे ला-दवा ज़हर मुझको

झुका नाज़-ओ अदा से दिल फेंक आशिक़ को
फ़िगार कर नहीं सकती तेरी कातिल नज़र मुझको

बयार-ए ग़म चले या करे ताब-ए रंज सितम
पेश लेने के आते हैं ज़िन्दगी काबिल हुनर मुझको

नसीब जोश-ओ जुनूं हो बुलंद ईरादों का रहूँ बनकर
चाहिए हुस्न-ए पनाह साक़ी न कोई रहबर मुझको




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                                        30 December 2010









वस्ल-ए शब

सिमटकर आग़ोश में वो हाल-ए दिल गुनगुनाता रहा
बदन लौ-ए चराग़ के मानिंद बल खाता रहा

पिलाता रहा रात भर आँखों से शराब-ए मोहब्बत
तिश्नगी-ए दिल को मेरी बे-हिसाब और बढाता रहा

हुआ बेगाना कुछ इस कदर मैं होश से अपने
के उसके उलझे हुए गेसू और भी उलझाता रहा

लूटते रहे हम वस्ले- शब उनके होंठों की सुर्खियाँ
वो महरबां दिल से दौलते- हुस्न लुटाता रहा

दीवाने ज़माने से कैसे मोहब्बत में पेश लेते हैं
हुनर मुझ नादां को कई आशिकी के सिखाता रहा

फिर मुकम्मल हुई आरजू जिसके मुद्दत से माईल थे
प तमाम शब महताब वैरी दरम्यां आता रहा




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                                              2 January 2011









शब-ए ग़म

शब-ए ग़म में अजब नहीं कुछ भी हो गुजरना
क्या लुत्फ़ था जो शब-ए ग़म सियाह रही होती

लिए न फिरते चाक लिबादा यूँ तंग हाल बनकर
रात अपनी भी कहीं मजे में कट रही होती

ख़ामोशी होती आज कसक-ए दिल की जगह पर
चोट काम की थी ग़र मौके की रही होती

क्यूँ लिखें हाले- दिल जिसने गमे- तूफां से पेश ली
शराब होती ग़र होके तजकिरा कलम से चू रही होती

कभी उल्फ़त ने हमारी हमें सियाना न होने दिया
'सोरहवी' कमबख्त इश्क होता न ये कमी रही होती

शुक्र-ए क़ज़ा ले गई जो झटके में दम निकाल
अगर ज़िन्दगी होती अभी तलक परेशां कर रही होती




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                                                  October 2010









کٔشِیر: वादी-ए जन्नत

उम्र दिल को देती कभी पंख ख्वाबों को लगा देती
कैद वहशते- खिज़ा में ईसकी आज रंगीनीयते- बहार कैसे हुई

दामने- वादी-ए जन्नत पर नक्शे- लहू देखता हूँ
सादगी पसन्द अवाम ईसकी जब्र की शिकार कैसे हुई

लूटी है तबीयत से जंगे- सियासत ने आबरू ईसकी
वरना बेनजीर हुस्नो- जिस्तो- जवानी ईसकी बेकार कैसे हुई

नित धधकते हैं यहाँ अमन के सीने पर शोले
वादी-ए अमन ज्वाला-ए नफ़रत में गिरफ़्तार कैसे हुई

ज़ख्म गैरों ने दिऐ कभी सितम अपनों ने ढाऐ
वरना काबिल कशिशे- निगह ईसकी ईतनी लाचार कैसे हुई

ज़िन्दगी होती है संगसार यहाँ दहशतगर्दों के ईशारों पे
वादी-ए अवाम सफ़ीना-ए बर्बादी पर सवार कैसे हुई




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                                                          December 2010









खरीद्दार-ए ग़म

खरीद्दार-ए ग़म न कोई गमे- यार मिला
सिर्फ निगाह मिली और निगाह को इन्तेज़ार मिला

अँधेरों की कफ़स में बेखुद हैं ह
रतें
दुआ रंग लाई न कोई सच्चा मज़ार मिला

मैंने जब भी तलाशा खुद को मन दर्पण में
खोफ़-ए हश्र से मैं हमेशा बेज़ार मिला

कशाकश हैं दिले- उम्मीद फ़िक्र-ए हयात से
फिर भी सकूं न कोई लुत्फे- आबशार मिला

गुफ्तारे- जुबां में अब कशिश नहीं किसी की
हर जानहार नियत-ए गिरफ़्त में गिरफ़्तार मिला

आँखों के दरीचे से दिल में उतर आई तमन्ना
आज जब यार-ए हस्बे इत्तेफ़ाक इस्तिफसार मिला




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                                          September 2010









ढूंढ़ता रहता हूँ

ढूंढ़ता रहता हूँ वक़्त के आईने में अक्स अपना
मीलों चलकर भी मेरे होने का कोई निशां नहीं मिलता

दर्द ने दिल में जगह की तब एहसास हुआ
के मोहब्बत में सिवा ग़म के कुछ नहीं मिलता

रंज की भीड़ में छोड़ जाते हैं हमसफ़र तन्हा
दिल-ए तबाह को कोई रास्ता फ़िर नहीं मिलता

हिज्रे- खिज़ा ले जाती है चाहते- गुल की जवानी
तमन्नाओं की तस्वीर को कोई रंग फ़िर नहीं मिलता

कोई दीवाना तो कोई रिंद देकर आवाज़ बुलाता है
ढ़ंग से पहचान ले मुझको कोई ऐसा नहीं मिलता

यारो बदनाम बहुत है ये दयार जरा संभलिऐ यहाँ
यहाँ संग दिल तो मिलते हैं मगर सनम नहीं मिलता




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                                                              2010









किताब-ए दिल

किताब-ए दिल में य़क फ़साना-ए यार है
हक़ीक़त ये भी के उसे इस हक़ीक़त से इन्कार है

फ़िक्र-ए भंवर में है मेरे दिल की कश्ति
साहिल-ए उल्फ़त इस तरफ और न उसपार है

जाल फैला है माथे पर क़िस्मत की लकीरों का
न जाने किस किस का यारो मुझपे एहसां ऊधार है

नहीं आती नज़र लौ-ए शम्मा-ए वफ़ा कहीं से
मतलब की दुनियाँ है हर तरफ फ़रेब की मार है

हिज्र की बारिश है कभी ग़म के तूफां हैं
हयात-ए गुलशन से नाराज़ सकून-ए बहार है

वफ़ा मिलेगी वफ़ा के बदले रोजे- हश्र से पहले
मुझको जाने क्यूँ इस झूठी तसल्ली पे ऐतबार है




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                                       September 2010









मैं मज़हबी नहीं

मैं मज़हबी नहीं हूँ तो काफ़िर भी नहीं मैं
मैं सर्द शबनम नहीं तो शोला भी नहीं मैं

उम्मीद मुझसे न रख भंवर-ए जिस्त में डूबने वाले
मैं नाखुदा नहीं हूँ कोई साहिल भी नहीं मैं

खौफ किस बात का मुझसे तू खाता है मुसाफ़िर
माना मैं रहनुमा नहीं तो रहज़न भी नहीं मैं

ईलाज कहीं और देखो यार ज़ख्म-ए दिल का
मैं तबीब नहीं हूँ मरहमे- दर्दे- जिगर भी नहीं मैं

इशरत रहमो- करम अपना जा खानमा बर्बाद पे कर
मैं बेज़ार नहीं हूँ कोई मयख्वार भी नहीं मैं

ज़िन्दगी इरादे न जता अपने मैं मुद्दत से ख़बरदार हूँ
माना मैं दाना नहीं तो इतना नादां भी नहीं मैं




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                                                             2009









क़रार आने को

क़रार आने को दर्शे- तबीबे- इश्क ही काफी है
दवा से नहीं मतलब हूजूर इश्क के बिमारों को

मस्जिदें बनती हैं मयखाना खुदा यार हो जाता है
जब नशा चढ़ता है मोहब्बत का इश्के- मयख्वारों को

भले किसी के चाहें जिस्म से जां ही निकल जाए
जाने क्या लुत्फ़ है देर करने में वादा ख्वारों को

क्यूँ खाना-ए दिल में ख्वाबो ख़ामोशी गंवारा नहीं तुमको
क्यूँ हवा देते हो दर्द के बुझते हुए शरारों को

किसी जानिब सकूं नहीं रंज कुन्हीयाते हैं शबो- रोज
जैसे मौज-ए दरिया सोने नहीं देती हैं किनारों को




Copyright © Virraj Sorhvi 2011
                                                                  2010









दिले- आबिर

दिले- आबिर को जिसकी मुद्दत से तलाश थी
वो हसीं हमसफ़र मयकदे में मिल गया आज

घोलकर पी गया मैं हर कसम शराब में
वक़्त फ़िक्र-ए-रोज़गार से मिल गया आज

गमे- आतिश ने कभी जो लुटा था सकुने- दिल
वो सकूं साक़ी-ए-अंजुमन में मिल गया आज

शिशे की तरहा टूटे हैं आरजू के भरम
ज़िन्दगी जीने का मुझको हुनर मिल गया आज

बेनूर थी मुद्दत से ये बस्ती-ए दिल साक़ी
नूर तेरे करम से बेश ईसे मिल गया आज

नहीं दरकार किसी बुत की अब इबादत को 'सोरहवी'
ढूंढता था जिसे वो खुदा मिल गया आज




Copyright © Virraj Sorhvi 2011
                                                            2010









नग़मा


होती है रात को फिक्रे- सहर होने दे
वस्ल-ए शब ऐसे ही बसर होने दे


लडखडाने दे मोहब्बत के नशे में क़दम
डूबने दे मुझको चाहत-ए दरिया में सनम
इश्क का रूह पे मेरी असर होने दे


होती है रात को . . .
वस्ल-ए शब . . .


झोंका-ए सबा दे रहे हैं देख संग अपना
आबे- दरिया दे रहा है देख संग अपना
आज आबे- हयात को आबे- कौसर होने दे


होती है रात को . . .
वस्ल-ए शब . . .


तू मेरे दिल में मैं तेरी निगाह में रहूँ
तू मेरी बाहों में मैं तेरी पनाह में रहूँ
होती है ग़र ज़माने को ख़बर होने दे


होती है रात को . . .
वस्ल-ए शब . . .


Copyright © Virraj Sorhvi 2011
                                September 2010










For Anna

अभी तो दिखलाई है हमने सितम सहने की अदा
ज़ोर-ए-बाज़ू तो सितमगर अभी दिखलाया नहीं

इज़ाफ़ा लाख कर हुकूमत-ए-क़ातिल वहशत में
सर कभी हमने भी क़ातिले-पा में झुकाया नहीं

देखने भर से हमारे पिघल जाएं हैं सलाखें
हमने कब कब दीवारे - क़फ़स को ढाया नहीं

सवार फिर तमन्ना-ए-सर फ़रोशी है आज सर
फिर न कहिए के अनजाम से आगाह कराया नहीं

हक़ अवाम का छीनें करे हैं मुल्क को बदनाम
कहिए अन्ना को अनाड़ी सबक़ तुमको गर सिखाया नहीं


Copyright © Virraj Sorhvi 2011
                                                        August 2011









* * *

ख़ुदा करे तुम्हारे काशाने पर अंजुमो-महताब सजे
रहो खुशियों की फ़िज़ा में जबीं पर आफ़ताब सजे

गुलशन-ए-हयात का तुम्हारे ख़ुदा सदा निगहबान रहे
उम्रभर जहां भर की राअनाई से तुम्हारा शबाब सजे

दुआ ये रब से के रोज़ हो तुम्हारा यक ख़्वाब हकीक़त
रोज़ आँखों में तुम्हारी फिर नया यक ख़्वाब सजे

गिरें दुशवारियाँ ग़श खाकर नाकामियाँ तुमसे होकर हिरासाँ घबराएं
दिल में जोश-ओ-जुनूं हौसलों में तुम्हारे इतना ताब सजे

देखने भर से तुम्हारे काफूर हो ग़म ख्वार का ग़म
निगाह में करम दुआ में ताब बे-हिसाब सजे . . .




Copyright © Virraj Sorhvi 2012
                                                                                                November 2012                                                                              





END MARK (Aldus Manutius fleurons)